जमाने भर की तकलीफों के बारे में क्यों सोचते थे 'हिंदू विरोधी' फै़ज़ अहमद फै़ज़

मकबूल शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) की नज्म 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' को लेकर सोशल मीडिया पर खूब प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. दरअसल बीते दिनों जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों ने CAA के विरोध में प्रदर्शन किया था तब कानपुर IIT के छात्रों ने अपने यहां ये नज़्म गाकर समर्थन दिया था. तब वहां की फैकल्टी के कुछ सदस्यों ने इस नज़्म को हिंदू विरोधी करार दिया था. अब आईआईटी कानपुर ने एक समिति गठित की है जो यह तय करेगी कि फै़ज़ की नज्म 'हिंदू विरोधी' है या नहीं. इसे लेकर सोशल मीडिया पर संग्राम छिड़ा हुआ है. बहुत सारे लोग फै़ज़ के समर्थन में पोस्ट कर रहे हैं तो बड़ी संख्या विरोध करने वालों की भी है.

मजलूमों को शायर
फै़ज़ अहमद फै़ज़ उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसकी शायरी आज भी मजलूमों के लिए हिम्मत का काम करती है. फै़ज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था. फै़ज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फै़ज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.


उर्दू शायरी और नज्म में प्रेम या इश्क का बड़ा जोर रहता है. फै़ज भी पहले इश्किया शायरी ही किया करते थे, जिसपर सूफीवाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. प्रगतिशील लेखक संघ का नारा था- 'हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा' यानी कविता और शायरी में प्रेम-मोहब्बत की जगह आम लोगों, मजलूमों और मजदूरों के बारे में लिखने की अपील की गई.

फै़ज़ ने भी अपनी शायरी के मिजाज को बदला और शायरी में आम लोगों के दुख-दर्द को जगह दी. फै़ज़ ने बिल्कुल शायराना अंदाज में प्रेम-मोहब्बत की शायरी न लिखने की घोषणा की. फै़ज़ 'मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग' में लिखते हैं-

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

यानी प्रिय से मिलन की खुशी के अलावा और भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें करने से खुशी मिलती है. फै़ज़ यह स्वीकार करते हैं कि उनकी प्रेमिका का हुस्न अभी भी खूबसूरत है लेकिन जमाने में जो दुख हैं शायर के लिए वो अब ज्यादा मायने रखते हैं. फै़ज़ ने अपनी शायरी से उर्दू शायरी के सूरत को बदल कर रख दिया. 'इंतिसाब' नामक नज्म तो पूरी की पूरी आमलोगों को समर्पित है. यह महिलाओं, कामगारों और सताए हुए लोगों को समर्पित है.